भव्य होती दिव्या की सुनहरी कुश्ती

कोशिश की। मगर आर्थिक तंगी ने उनके सपनों को ब्रेक लगा दिये। उन्होंने भी पहलवानी की और छोटी-मोटी कुश्तियां भी लड़ीं। वह कुश्ती में भविष्य तलाशने दिल्ली आए। पांच साल दिल्ली में मिट्टी के अखाड़ों में कुश्तियां लड़ीं। मगर, किस्मत ने राह नहीं दी। फिर मायूस होकर गांव लौट गए। शादी की और घर-गृहस्थी में रम गये। मगर पहलवानी की कसक दिल में बनी रही। वे अधूरे सपनों को पालते-पोसते रहे। सोचा कि जब बच्चे बड़े होंगे तो उनके जरिये अधूरे सपने पूरे करूंगा। सूरजवीर सेन की तीन संतानें हुई-बेटा देव, बेटी दिव्या और छोटा बेटा दीपक। पहले सूरजवीर ने बेटे देव को पहलवानी सिखानी शुरू की। उसकी देखा-देखी में दिव्या भी अखाड़े जाने लगी। उसके रक्त और संस्कारों में पहलवानी जो थी।शायद कुदरत ने उसे पीढ़ियों के सपने पूरे करने को भेजा था। बाद में पिता ने दिव्या को प्रोत्साहन देना शुरू किया। पिता को लगा कि गांव में अच्छे अखाड़े व सुविधाएं नहीं हैं तो दिल्ली चला जाया। वे बिना किसी आर्थिक सुरक्षा के बच्चों का भविष्य संवारने और अपने दिल के अरमान पूरे करने दिल्ली चले आये। दिल्ली में रहना कौन-सा आसान था। छोटी-मोटी नौकरी से घर चलाना और तीनों बच्चों को पढ़ाना मुश्किल ही था। बच्चे दिल्ली स्थित गोकलपरी के प्राइमरी पाठशाला में जाने लगे। दिव्या आठ साल की हुई तो अखाड़े जाने लगी। मिट्टी के अखाड़े में कुश्ती करने लगी। अखाड़े में लड़की होने पर दिव्या का विरोध भी हुआ। मगर जब मन में जुनून हो तो कुदरत भी रास्ते निकाल ही देती। एक अखाड़े में एक प्रशिक्षत गुरु अजय गोस्वामी ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और शिक्षा देनी शुरू की। दिव्या जब एक बार में हजार-डेढ़ हजार दंड लगाती तो कौतहल का विषय बन जाती। दिव्या की आगे की राह इतनी आसान भी नहीं थी। दिल्ली में गाय-भैंस तो रख नहीं सकते थे। प्लास्टिक की थैली में आने वाले दूध से ही गुजारा चलता रहा। दिव्या ने मन को संतोष दिया कि चलो फिर भी दूध मिल तो रहा है। घर की मदद के लिए दिव्या ने आसपास के इलाकों में छोटी-मोटी कुश्तियों में भाग लेना शुरू कियाउसके मुकाबले के लिए लड़कियां तो नहीं मिलती थी तो लड़कों से ही उसका मुकाबला हो जाता। लेकिन लोगों के लिए यह मनोरंजन का विषय होता था कि एक लड़की अखाड़े में दमखम दिखा रही थी। खूब तालियां मिलतीं। लोग पैसे भी देते और कुछ मदद आयोजक भी करते। कुछ प्रेमनाथ हजार रुपये मिलते तो घर का खर्चा चल जाता। पिता ने अब देव को कुश्ती छुड़वाकर दिव्या पर ध्यान केंद्रित किया। इस जद्दोजहद में मां संयोगिता भी शामिल हई। घर का खर्चा चलाने के लिए उसने अखाड़े के पहलवानों के लिए लंगोट सिलने शुरू किये तो घर में खर्चे के लिये चार पैसे आ जाते। गरीबी व संघर्ष से शुरू हुआ दिव्या के हौसलों व फौलादी इरादों का सफर परवान चढ़ने लगा। वर्ष 2011 में हरियाणा के नरवाणा में हुए स्कूल नेशनल खेलों में दिव्या ने पहला कांस्य पदक जीता। दिल्ली के लिए 17 स्वर्ण पदकों समेत कल साठ पदक जीते। गरु प्रेमनाथ के अखाड़े में कोच विक्रम ने उसकी प्रतिभा को निखारा। वर्ष 2013 में दिव्या ने मंगोलिया में हुए अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती टूर्नामेंट में पहली बार रजत पदक जीता। वर्ष 2017 में उसने एशियन कुश्ती चैंपियनशिप में रजत पदक जीता। फिर इसी साल 68 किलोग्राम भार वर्ग में राष्ट्रीय चैंपियन बनी। वर्ष 2018 में हुए जकार्ता एशियाड खेल में कांस्य पदक जीता। इसी साल गोल्ड कोस्ट आस्ट्रेलिया में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीता। उन दिनों उसका एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह दिल्ली के मुख्यमंत्री को राज्य के लिए तमाम पदक जीतने पर कोई आर्थिक मदद न देने पर खरी-खोटी सुना रही थी।


Comments