ऐसे वक्त जब पूरी दुनिया कोरोना वायरस के खौफ से जूझते हुए मानवता की रक्षा के लिए एकजुट है, अफगानिस्तान में आतंकवादियों ने अल्पसंख्यक सिखों को निशाना बनाया है। गुरुद्वारे पर हुए इस आत्मघाती हमले में 25 सिखों की मौत हो गई और बड़ी संख्या में घायल हुए। यों तो पहले भी अफगान सिखों को निशाना बनाया गया, लेकिन यह अब तक का सबसे बड़ा हमला है। छह घंटे तक चले इस हमले के बाद अफगान सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में चारों हमलावार मारे गये। अफगान सुरक्षा बलों की तत्परता से ग्यारह बच्चों समेत बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की जान बच सकी। सुबह जिस समय यह हमला हुआ, उस समय गुरुद्वारे में डेढ़ सौ लोग मौजूद बताये जाते हैं। निसंदेह सिख अल्पसंख्यकों पर आतंकी हमला चरमपंथियों की हताशा का परिचायक है। इस अशांत देश में राजनीतिक अस्थिरता के बीच हमले का मकसद दुनिया का ध्यान अफगान समस्या की ओर खींचना ही है। दरअसल, इस समय अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव के बाद दो शीर्ष नेता अशरफ गनी और अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। वहीं तालिबान के एक गुट के साथ हुआ अमेरिका का शांति समझौता अपने अंतर्विरोधों के कारण खटाई में पड़ता नजर आ रहा है, जिसकी हताशा इस हमले केमूल में नजर आती है। हालांकि, आईएस ने हमले की जिम्मेदारी ली है।मगर अफगान मामलों के जानकारों का आरोप है कि यह हमला वास्तव में पाकिस्तान की जमीं पर फले-फूले हक्कानी गुट, लश्कर-ए-तयबा और आई.एस.आई. की मिलीभगत से हुआ है। दुनिया का ध्यान भटकाने के लिए हमले की जिम्मेदारी आईएस द्वारा ली जा रही है। बावजूद इसके हमला कायराना है, जिसकी भारत समेत अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी द्वारा निंदा की जा रही है। अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भी हमले में पाक पोषित आतंकवादी संगठनों की भूमिका की ओर इशारा किया है। ऐसा भी नहीं है कि अफगानिस्तान में सिखों पर यह पहला हमला है। गाहे-बगाहे अल्पसंख्यकों को तालिबानी चरमपंथी निशाना बनाते रहे हैं। गृहयुद्ध से जूझ रहे अफगानिस्तान में जुलाई, 2018 में भी पूर्वी शहर जलालाबाद में सिखों व हिंदुओं के समूह को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था, जिसमें 19 लोग मारे गये और बीस घायल हो गये थे। हमले में अफगानिस्तान में सिखों के सबसे प्रसिद्ध नेता अवतार सिंह खालसा भी मारे गये थे। ये हमले तालिबानों की शैतानी मानसिकता को ही दर्शाते हैं। अफगानिस्तान की राजधानी के बीचोंबीच स्थित गुरुद्वारे में सिखों पर हुए अब तक के सबसे बड़े हमले से साफ जाहिर होता है कि यदि देर-सवेर तालिबान को सत्ता मिलती है तो अल्संख्यकों का अफगानिस्तान में रहना बेहद कठिन हो जायेगा। निसंदेह आने वाला समय धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बेहद मुश्किल होगा। खासकर तब जब अमेरिका व नाटो देशों की सेनाएं अफगानिस्तान से निकल जायेंगी। फिर सरकारी सुरक्षा बलों व तालिबान लड़ाकुओं के बीच संघर्ष का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जायेगा, जिसकी कीमत धार्मिक अल्पसंख्यकों को चुकानी पड़ेगी क्योंकि तालिबान गैर-इस्लामिक समूहों को बर्दाश्त करने केलिए तैयार नहीं होगा। ऐसे में अमेरिका को अफगान संकट को गंभीरता से निपटाते हुए ही अफगानिस्तान से निकलना चाहिए। अन्यथा घातक परिणाम सामने आ सकते हैं। गृहयुद्ध के और विकराल होने की आशंका बलवती होने लगी हैं। यह हमला ऐसे समय पर आया है जब अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो मंगलवार को अफगानिस्तान के दौरे पर थे। राष्ट्रपति पद के दावेदारों के बीच समझौते को लेकर प्रयास विफल होने पर माइक पोम्पियो ने चेताया कि समझौता न होने की दशा में अमेरिका अफगानिस्तान को दी जाने वाली सहायता राशि में कटौती करेगा।
कायराना हमला